ऐ दोस्त! जरा देखो तो ये कैसी विडंबना है,
सब कुछ दिया फिर भी देश नहीं अपना है।
इसी देश में जन्म लिया, यहीं पले बढ़े वो,
फिर भी देश का मान उन्हें नहीं रखना है।
इसी देश का अन्न खाया भूख मिटाने को,
पर उन्हें देश का शुक्रिया अदा नहीं करना है।
यहीं धन दौलत, रुतबा, नाम कमाया उन्होंने,
पर फिर भी देशहित के कामों से उन्हें बचना है।
देश और देशवासी उनकी भलाई सोचते हैं,
पर उन्हें तो दिलों में नफरत पालते रहना है।
अपने मजहब को बताते हैं नफरत की वजह,
मजहब नहीं सिखाता बैर ये ही मुझे कहना है।
नफरत के होते हुए भी देश को छोड़ना नहीं है,
पर नफरतों के साये में ही उन्हें मारना मरना है।
जयकारे तो दूर वो मुर्दाबाद के नारे लगाते हैं,
पर शांति बनाये को ये दर्द भी हमें सहना है।
बहत्तर हूरें और जन्नत मरे बिना किसे मिली हैं,
बस ये ही एक सवाल मुझे सरेआम पूछना है।
जिंदगी अपनी जहन्नुम क्यों बना रहे हैं वो,
बस ये ही समझ नहीं पा रही सुलक्षणा है।
©® सुलक्षणा अहलावत
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