आदरणीय डॉ साहब नमस्ते
आपका लेख हरियाणा का सामाजिक सांस्कृतिक परिदृश्य पढ़ा। आपने इस लेख में काफी डिटर्मिननेंट्स कवर किए हैं। इनसे संबंधित आंकड़े प्रस्तुत किए हैं। इस दृष्टि से यह लेख काफी अच्छा बन पड़ा है।
मैं दो-तीन कॉर्नर से इस पर अपनी टिप्पणी करना चाहता हूं। कई मुद्दों पर आपने लिखा है ऐसा क्यों हुआ? यह एक गंभीर सवाल है और अलग से एक गंभीर बहस की मांग करता है। इससे एक अर्थ तो यह निकलता है कि ऐसे मुद्दों पर और अध्ययन चाहिए। यानी कई और परचे लिखे जाने अभी बाकी है । यह सही भी है। इस अर्थ में यह परचा (सामाजिक सांस्कृतिक परिदृश्य) और बड़ा बनेगा । यह बनना भी चाहिए।
यद्यपि हरियाणा कोई बड़ा प्रदेश नहीं है, फिर भी भिन्नताओं का अंतर बहुत ज्यादा है ( आपने स्वीकारा है)। नए गुरुग्राम और लोहारू में जमीन आसमान का अंतर है।
पंचकूला और मेवात में बहुत कम समानता है। इसी तरह डबवाली और नारनौल आदि और भी उदाहरण हैं। इसके चलते हरियाणा की एक औसत तस्वीर बनाना काफी मुश्किल काम है। आंकड़ों को आधार बनाकर परिदृश्य पढ़ना एक और चुनौती है। एक तो ये आंकड़े बहुत जल्दी बदल जाते हैं, दूसरा आंकड़ों के स्रोत अलग-अलग आंकड़े प्रस्तुत करते हैं। तीसरे बेजान आंकड़े कभी भी जीवंत तस्वीर नहीं गढ़ सकते । लेकिन अध्ययन के लिए यह जरूरी भी होते हैं।
कुछ और रुझान भी देखें हरियाणा में भीख मांग कर खाने वाले अपेक्षाकृत कम मिलेंगे। (अभी आंकड़े नहीं है) अधिकतर भिखारियों की संख्या या तो मठों के आसपास या पर्यटन स्थलों पर मिलती है।
इस प्रदेश में यह पर्यटन उद्योग भी एक कमजोर पक्ष रहा है। दूसरे इतने धाम या मठ (बेड़ ) यहां नहीं पनपे हैं।(हालांकि मंदिर छोटे कहें संख्या कम नहीं)। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि हरियाणा, पंजाब का एक भाग अलग हुआ है। प्राय ऐसा कहा जाता है कि सिख भीख नहीं मांगते। सिख परम्परा मनुवाद के विद्रोह स्वरूप भी बनी है। इन्होंने अपनी भाषा लिपि (गुरुमुखी) इसीलिए अलग बनाई है ताकि संस्कृत के उच्चारणों (कर्मकांडो) से काफी हद तक बचा जा सके। यह कोई छोटी बात नहीं है। हरियाणा को इसका फायदा भी मिला है।
इस प्रदेश में रूढ़िवाद की जड़ें अपेक्षाकृत ढीली हैं।एक पक्ष वृद्धाश्रमों का भी लिखा जाना चाहिए। इस समय पूरे देश में सरकारी वृद्धाश्रमों की संख्या 700 से ऊपर है।।केरल में सर्वाधिक 124 हैं तथा हरियाणा में केवल एक है।चेरिटेबल संस्थाएं तो अनेक मिल जाएंगी।वृद्धों का गरिमापूर्ण बुढ़ापा गुजरना अब इस प्रदेश में मुश्किल होता जा रहा है।युवाओं के स्वतंत्र जीवन जीने की भावना कुछ ज्यादा पनप रही है।
हरियाणा में कामगारों व कारीगरों की स्थिति बड़ी दयनीय हो गई है। पुराने समय की हवेलियां (वास्तुकला) व उनकी लकड़ी की कारीगरी तथा छत के निकट नीचे रंगीन कलाकृतियां -- कहीं बची हुई मिल जाएंगी।उनमें जो हाथ का हुनर होता था आज ऐसे कारीगर सीमित हो गए हैं। ऐसे काम फुर्सत के दिहाड़ी पर ही हो सकते हैं।इनके कद्रदान पुराने सेठ भी आज नहीं रहे।पत्थर पर संगतरासी व लकड़ी पर खुदाई आज शायद ही मिले। इसी प्रकार तांबे - पीतल के देग - टोकनी - सागर आज शायद ही मिलें। इस प्रकार ठठेरे अधिकतर रेडीमेड आइटमों पर आकर रुक गए हैं। मिट्टी का काम (कुम्हार) pottery आज दम तोड़ रहा है। मिट्टी के खुदाने ही नहीं रहे। अधिकांश मिट्टी highways/ byepas में लग जाती है।कुम्हार का चाक जो कभी शगुन में पूजा जाता था आज कोने में टोकन का रखा राज्य है।हरियाणा में आज कौन पैर का नाप देकर चमड़े का जूता - जूती बनवाता है? कंपनियों के ' use and thro' जूते हैं। वो चर्मकर्मी भी नहीं रहे। गली बाजारों के चौराहों पर बैठ कर जूतों की मुरम्मत करने वाले आज कहां दिखाई देते हैं । ऐसे कारीगरों की बुरी हालत है। बड़े व्यवसाय करने की उनकी हैसियत नहीं । लोहार आदि का भी आज यही हाल है। Theory of alienation में पहले तो इस प्रकार के कामगार अपने उत्पाद से अलग होते थे। काम के बोझ के कारण ( या व्यस्त)अपने समुदाय के अलगाव महसूस करते थे। अब तो वे शक्तिहीन, लाचार व पूरी तरह , दया आधारित meaningless जीवन जीने को मजबूर हैं। कुछ जातियों (कामगारों ) में आरक्षण के कारण इक्का दुक्का कोई नौकरी पा भी गया तो अहम भाव से वह अपने समुदाय में elite मानने लग गया। यह एक नए प्रकार का alienation है।
।हाल ही के कुछ वर्षों में हरियाणा के युवाओं में कावड़ लाने की प्रवृति बढ़ी है।मोटे रूप में देखा गया है कि इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि उनकी आस्थाएं मजबूत हुई हों। ऐसे अधिकतर युवाओं के पास न कोई काम है , न कोई सार्थक एजेंडा। बड़ा एजेंडा यहीं तक सिमटा होता है कि लगभग पंद्रह दिन की पिकनिक व मुफ्त के लंगर बस। इसी तरह हरियाणा में रात्री जागरणों का प्रचलन भी बढ़ा है।इनकी प्रकृति अधिकतर व्यवसायिक होती है। इसी तरह धार्मिक शोभा यात्राएं भी कुछ ज्यादा बढ़ी है। कुछ नए प्रकार के उत्सवों का भी प्रवेश हुआ है।
गणेश पूजा में छठ पूजा आदि इस क्षेत्र के नहीं थे फिर भी इनका पर्सनल इधर बढ़ गया है मुझे नहीं लगता कि हमारे यहां के 30 गूगल आदि दूसरे प्रदेशों में गए हो एक कारण तो समझ में आता है यहां के शहरों में हर तीसरे चौथे घर में झाड़ू पोछा करने वाली बिहारन या यूपी से हैं इसी तरह इन प्रदेशों की माइग्रेंट लेवल इधर बढ़ गई है शहर के लेबर चौक के चौराहे पर बड़ी तादाद मिली थी मिलेगी उनके साथ उनकी पत्नियों भी कंस्ट्रक्शन के कामों पर जा रहे हैं। जिस तरह दिल्ली जैसे शहरों में जेजे कॉलोनी जोगी झोपड़ी में आज हरियाणा के अधिकांश शहरों में आउटसाइड में यह यूपी बिहार आदि के आए मजदूर बड़ी संख्या में बहुत ही कठिन हालातो में रह रहे हैं कुछ छोटे स्तर के रोजगार के काम जैसे फल सब्जियों की रेडी पानी पुरी के कौन से जून तकनीकी कब कर खरीदने वाले कबाड़ खरीदने वाले नल पानी विसर्जन आदि के छोटे-छोटे काम यहां हरियाणा वशी काम ही कर रहे हैं
हरियाणा प्रदेश मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की सभ्यता का इलाका रहा है । राखी गढीं मिताथल आदि में कुछ पूरातत्व साक्ष्य मिले हैं । परंतु इस दिशा में जितने शोध होने चाहिए थे वे हुए नहीं । दूसरी और कुरुक्षेत्र और करनाल आदि में महाभारत( इतिहास) के नाम पर बहुत कुछ manupulated लेबल लगाए जा रहे हैं । यह हरियाणा की ऐतिहासिक व सांस्कृतिक धरोहर को विकृत करने की कोशिश हैं ।
सॉन्ग व रागनियां इस क्षेत्र की folk संस्कृति रही हैं। लेकिन सॉन्ग कला लगभग विलुप्त होने के कगार पर है। रागिनियो का चरित्र आज भोंडी सकल अख्तियार कर चुका है । इस क्षेत्र में लड़कियों का प्रवेश एक नयापन है। साक्षरता आंदोलन के प्रयासों में इस दिशा में कुछ मूल्य स्थापित करने की कोशिश हुई थी । वह तर्ज की दृष्टि से तो आज भी आकर्षण का केंद्र है लेकिन vontent की दृष्टि से ज्यादा नहीं लुभा रहा। इन पर उतनी सीटियां नहीं बजती जितनी भौंडी रागनियां के कंपीटीशन में बजती हैं। इससे यहां के जनमानस के चरित्र व पसंद का अंदाजा लगाया जा सकता है।हफ्तों भर रातों को घूमने वाली भजन मंडलियां आज बीते युग की बात लगती हैं। हरियाणा का फिल्म उद्योग अभी नया है। हरियाणवी में बहुत कम फिल्में ही सामने आई हैं। एक चंद्रावल फिल्म ही ऐसी फिल्म रही है जिसने एक खास मुकाम हासिल किया था।
खेलों की संस्कृति में यहां (कुश्ती-कब्बडी) आदि का बोलबाला रहा है।यहां के गबरू जवान सेहत की दृष्टि से तो श्रेष्ठ रहे, परंतु कोचिंग (तकनीक) के मामलों में अभी हाल ही मैं कुछ हासिल कर पाए हैं। ओलंपिक में हरियाणा का दबदबा विशेषकर (कबड्डी) में साफ दिखता है। मास्टर चन्दगी राम व कपिल देव की उपलब्धियां भी कम नहीं रही। कपिलदेव ने सर्वप्रथम क्रिकेट जैसे खेल में बंबई के वर्चस्व को न केवल तोड़ा अपितु विश्वकप प(हली बार) भी जिताया।हॉकी में भी यहां का प्रदर्शन सराहनीय रहा है।
इस प्रदेश के अधिकांश खिलाड़ी (ख्यातिप्राप्त) अवसरवाद की राजनीति का शिकार बने हैं।
रीति रिवाजों ,खानपान,पहनावे आदि में बड़े परिवर्तन आए हैं। पींग कहीं कहीं ही देखने को मिलती है। बारातियों का रुपया गिलास आज की पीढ़ी जानती नहीं।कोथली की सुहालियाँ तो कब की गायब हो गई।धोती कुर्ता , कमरी खंडका बहुत कम देखने को मिलते हैं। खीर चूरमा , बाजरे की खिचड़ी आज की पसंद की खुराक नहीं रही। चना बाजरा कम हो गया है।चावल का प्रचलन बढ़ गया है। आज भातीयों का खांड कसार भी कहां है। आज यहां के लोग सत् पीना भूल गए हैं।
पहले हरियाणा में उद्योग बहुत ज्यादा तो नहीं थे। परंतु इधर उधर बिखरे हुए थे।आज उद्योग क्षेत्र कुछ स्थानों पर concentrate हो गए हैं। नया गुरुग्राम व फरीदाबाद आज हरियाणा का हिस्सा लगते ही नहीं। अधिकांश उद्योग GT Road की बेल्ट पर आ गए हैं। जहां तक बिजली पानी का सवाल है, दक्षिण हरियाणा इस मामले में पिछड़ा हुआ है। अंबाला करनाल आदि की तरफ की लड़कियां दक्षिण हरियाणा में कम ब्याही जा रही हैं।यह एक अलग प्रकार का socialA alienation है।
एक दो बातें और हैं जिन पर मैं अभी ठीक ठीक कह नहीं सकता । पिछले दिनों हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन ने हरियाणा के सामाजिक ताने बाने को एक dent दिया। प्रतिक्रियावादी ताकतों ने इसे Encash कर लिया। यह सामाजिक अविश्वास एक नया phenomenon है। इसके संज्ञान की जरूरत है। (For damage control)
दूसरी बातवाई कि पिछले लगभग चालीस वर्षों से ज्ञान विज्ञान आंदोलन हरियाणा में बड़ी ताकत लगा कर एक नवजागरण की दिशा में अग्रसर है। उत्तर भारत (विशेषकर हिंदी भाषी) में यह एक उदाहरण है। इसके क्या social impactsw हैं, अभी अध्ययन होना बाकी है।।डॉ साहब विशेष आग्रह यदि हो सके तो आप अपने प्रभाव के विश्वविद्यालयों के किसी Guide profesdor के तहत किसी शोधार्थी का topic for PHD बनवा सकें । इससे यह काम डॉक्यूमेंट भी हो जाएगा।
वेद प्रिय
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