Friday, 24 January 2014

kon kise

कोण किसे की गेल्यां आया कोण किसे की गेल्यां जावै
सोचै के साथ जा शमशान घाट पर तैं  जब उल्टा आवै
दि न सलीके से उगा रात ठिकाने से रही
दोस्ती अपनी भी कुछ रोज ज़माने से रही
चाँद लम्हों को ही बंटी हैं मुसव्विर ऑंखें
\जिंदगी रोज तो तस्वीर बनाने से रही
इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शमअ जलने से रही
निदा फाजली

आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा
किश्ती के मुसाफिर ने समुन्दर नहीं देखा
बेवक्त अगर जाऊँगा सब चोंक पड़ेंगे
इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा
बशीर बद्र
ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं
तुमने मेरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा
पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उसने मुझे छूकर नहीं देखा

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